अभिनव भारत

Wednesday, March 10, 2010

विकास के तट पर खड़ा,
भारत
अन्धकार से मलिन मुख,
और गरीबी से सने पैरों वाला,
आँखों में भ्रष्टाचार का आलस्य,
हाथों में साम्प्रदायिकता की लाठी लिए,
विकास की तटिनी के शाश्वत अविच्छिन्न प्रवाह को,
विचारों से टटोलता,
भारत ।
यह कविता मैंने 2004 में लिखी थी किन्तु आज भी उतनी ही प्रासंगिक है ।
श्रुतकीर्ति सोमवंशी "शिशिर"
रायबरेली
2345 Hrs.
08.03.2010

1 comment:

  1. झांकते हैं फिर नदी में पेड, पानी थरथराता है
    यह नुकीले पत्थरों का तल
    काटता है धार को प्रतिपल,
    और तट की बाँबियों को छेड़
    फिर सपेरा कोई गुनगुनाता है.
    हर नदी का शौक है घड़ियाल
    रह न पातीं मछलियाँ वाचाल,

    सोचती है एक काली भेंड,
    यह सूरज यहाँ क्यों रोज़ आता है .

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