हिन्दी पर धक्का-मुक्की

Thursday, November 12, 2009

अभी जल्दी ही महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के नतीजे घोषित हुए, जिसमें कांग्रेस को विजय प्राप्त हुयी । साथ ही एक राष्ट्रद्रोही की पार्टी को भी सदन का मुंह देखने का मौका मिल गया । यह हैं हमारे अत्यन्त होनहार युवा नेता राज ठाकरे । इस व्यक्ति को यह लगता है कि अगर ये हिन्दी भाषा और हिन्दी भाषियों को बुरा-भला बोलेगा तो इसको राजनैतिक फायदा होगा और तो और कुछ सीटें जीत लेने के बाद इनको यह लगने लगा है कि इनकी कार्यशैली सही भी है । पर इन महाशय की सहूलियत और ज्ञानवृद्धि के लिए ये बता दूँ ये सब करने से कुछ नही होगा । भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी है और किसी का बाप भी किसी को किसी भी जगह हिन्दी बोलने से नही रोक सकता । अगर राज ठाकरे की राजनीति में ज़रा सा भी दम है तो वो मुंबई से "हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री" को हटा कर दिखा दें ।
कुछ दिन पूर्व जब महाराष्ट्र विधान सभा में विधायक गण शपथ ग्रहण कर रहे थे तो समाजवादी पार्टी के विधायक श्री अबू आज़मी द्वारा हिन्दी में शपथ ग्रहण करने पर महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के कुछ "वीर-पुरुषों" ने उनके साथ हाथापाई की । बाद में एक समाचार चैनल के कार्यक्रम में एक विधायक ने तो यहाँ तक कह दिया कि उसके लिए राज ठाकरे, भारत के संविधान से ऊपर हैं । इसके बाद तो यही लगता है कि राज ठाकरे जैसे दुष्टों, पापियों और देश को बांटने का काम करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए । वैसे मेरा ये मानना है कि हमारा लोकतंत्र इतना कमज़ोर नही है कि इन जैसे व्यक्तियों के तोड़ने से टूट जाएगा । सच बात तो ये है कि बड़े-बड़े महारथी आए, कुछ तो मर-खप गए, कुछ अभी तक लगे पड़े हैं और कुछ आगे भी आयेंगे पर इन महारथियों से हमारा लोकतंत्र का कुछ न तो बिगडा है और न बिगडेगा । तो भइया सौ की सीधी एक बात, परेशान होने कि ज़रूरत नही है :
" हिटलर हो या राज ठाकरे, इन सबका अंत बुरा ही होता है । "

महत्वाकांक्षा

Sunday, November 8, 2009

कुछ समय पहले मैंने "अल्केमिस्ट" नाम का उपन्यास पढ़ा । काफ़ी अच्छा था । पर गलती ये हो गई कि उपन्यास मैंने अंग्रेजी की बजाय हिन्दी में पढ़ा । इसीलिए ऐसा लग रहा था कि बीच बीच में कुछ छूट सा रहा है । कभी कभी बोरियत भी हो रही थी क्योंकि अनुवादक कभी भी लेखक के मन की बात नही जान सकता । जब तक कि वो ख़ुद ही लेखक न हो । पर अगर इस उपन्यास के बारे में कुछ कहना हो तो मैं कहूँगा कि यह एक अत्यन्त विस्मयकारी किंतु सत्यान्वेषी उपन्यास है । मनुष्य की इच्छा और महत्वाकांक्षा में क्या अन्तर है यह मैंने इसे पढ़ कर जाना । अपनी इच्छा के लिए हम क्या कर सकते हैं और अपनी महत्वाकांक्षा के लिए क्या-क्या नही कर सकते , ये सब समझ में आ गया । बहुत से लोग इस शब्द "महत्वाकांक्षा" को पढ़ते रहते हैं, रटते रहते हैं, बताते रहते हैं, सोचते रहते हैं, कहते रहते हैं कि "सिकंदर बड़ा महात्वाकांक्षी था", "फलां आदमी बहुत महात्वाकांक्षी था", पर जीवन भर "समझ नही पाते ।" आदमी पेट से महात्वाकांक्षी पैदा नही होता । उसका साहस, पौरुष और हमेशा कुछ नया करने-सीखने की इच्छा उसे महात्वाकांक्षी बनाती है । यह बात और भी सोचने लायक है कि महत्वाकांक्षा, लालच से एकदम उलट चीज़ है । लालच के पीछे जो भाव है वो अच्छा नही है । पर महत्वाकांक्षा हमें जीवन में हमेशा सबसे आगे ले जाती है ।
यहाँ पर मैं उपन्यास का एक अंश उद्धृत करना चाहूँगा जो मुझे काफ़ी पसंद आया:
"उस खामोशी में भी लड़का समझ गया कि उसी की तरह ये रेगिस्तान,हवा और सूरज सभी उस सर्वभौम हाथ द्वारा लिखे चिन्हों को समझने की कोशिश कर रहे हैं । अपने लिए बनाये रास्तों पर चलने की दुआ मांग रहे हैं और उस नगीने की सतह पर लिखी इबारत को पढने की कोशिश कर रहे हैं । उसने देखा कि शकुन सारी धरती और पूरे अन्तरिक्ष में बिखरे पड़े हैं और उनके होने का कोई कारण या महत्व नही था । वह देख सकता था कि हवा, सूरज या लोगों में से किसी को भी मालूम नही था कि उनकी सृष्टि क्योंकर हुयी है । केवल वह सार्वभौम हाथ ही इस सृष्टि का कारण जानता था । सारे चमत्कार उसी हाथ के बस में थे । वह हाथ ही जानता था कि क्यों वे छः दिनों के सृजन में ब्रह्माण्ड को उस बिन्दु तक ले आए , जहाँ वह एक उत्कृष्ट कृति बन गया । "
- पाउलो कोएलो "अल्केमिस्ट" से ,

श्रुतकीर्ति सोमवंशी "शिशिर"
07.11.09
लखनऊ

अकथनीय.................

Monday, October 12, 2009

मनुष्य इस संसार का सबसे अजीब प्राणी है , कम से कम मेरी नज़र में तो है । कभी कभी होता क्या है हम किसी काम को कर रहे होते हैं और हमको लगता है , यार ! यह काम मैं क्यों कर रहा हूँ ? पर फिर भी हम वो काम करते रहते हैं और काम ख़तम भी कर देते हैं बावजूद ये जाने कि हमने फलां काम काहे किया । दरअसल प्रॉब्लम यह है कि काम करते रहना हम जानते हैं पर काम के अर्थ कि समीक्षा हम मन में नही कर पाते । मनोवैज्ञानिक तथ्य कि बात मैं नही कर रहा । पर फिर भी हम किसी न किसी ऐसी शक्ति के अधीन हैं जिसकी हम अभी तक शिनाख्त नही कर पाये हैं । मनुष्य की दुनिया केवल उसके दिमाग के फ़ितूर से ही परिपूर्ण हो जाती है ।

अब देखिये " मैं ख़ुद नही समझ पा रहा हूँ कि मैं लिख क्यों रहा हूँ पर फिर भी लिखता ही जा रहा हूँ...............................अभी तक लिख रहा हूँ ........................अभी भी लिखे जा रहा हूँ............और अब देखिये काम काम ख़तम भी हो गया । "


-धन्यवाद
श्रुतकीर्ति
11अक्टूबर 2009 , लखनऊ

स्वतंत्रता मुफ्त में नही मिलती........................

Wednesday, October 7, 2009

अभी जल्दी ही मैंने एक किताब पढ़नी शुरू की । किताब का नाम है " Freedom is not Free" इसके लेखक प्रख्यात वक्ता और शिक्षाविद ''शिव खेड़ा" हैं । किताब काफ़ी अच्छी है लेकिन केवल अच्छा होना ही इसकी लोकप्रियता का कारण नही है । किताब में जिन बातों का उल्लेख है, वो सही में काफ़ी ध्येय हैं । लेखक ने जिस बात पर ज़ोर दिया है , वो हम सबके दैनिक जीवन से जुडा हुआ है । सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये कही गई है कि " If we are not part of the solution, then we are the problem". अब अगर कुछ समझ में आ रहा है तो बात ये है कि हम सभी को अपने आस पास कि समस्याओं के लिए ख़ुद उसके समाधान का भाग बनना होगा । कुछ न करने से हम उस समस्या में भागीदार हो रहे हैं न कि उसके समाधान के । क्या हम ये चाहते हैं कि हमारे अगले 50 साल भी वैसे ही हों जैसे पिछले 50 साल थे ? मेरे ख्याल से ज्यादातर लोग ऐसा "नही" चाहेंगे । यार !! सबसे आसान काम यही है कि हम ख़ुद को ही ठीक कर लें । यह सबसे आसान काम है । कोई झंझट ही नही । तब सब कुछ ठीक हो सकेगा । मैं कोई प्रवचन नही दे रहा । मैं ख़ुद इसके mood में नही हूँ । मैं ये नही कह रहा कि हर आदमी "भगवान् राम" जैसा मर्यादा पुरुषोत्तम और "गाँधी " जैसा सत्य-अहिंसावादी हो जाए । एक सामान्य, साधारण और सरल आदमी भी चलेगा । तो भइया !! सौ की सीधी एक ही बात है :
"खुदा से पहले ख़ुद को जानो " ™
-श्रुतकीर्ति
08/10/09........00.15 am
रायबरेली

नई बात .......

Saturday, September 26, 2009

मैं एक नियमित लेखक नही हूँ पर फिर भी मैं संघर्ष कर रहा हूँ कि मैं ख़ुद को इस काम के लिए समर्थ बना सकूं........ प्रयास जारी है..........और मुझे लगता है यही ज्यादा ज़रूरी भी है ...................."प्रयास"


धन्यवाद
श्रुतकीर्ति अर्थात "शिशिर"
25/09/2009
बहुंचरा ........प्रतापगढ़

YUVRAJ SINGH : AN OVER-RATED PLAYER ?

Saturday, September 12, 2009


Recently i way paying attention on Yuvraj singh, the "member" of Indian Cricket team since 2000. I just figured out that this cricketer has a good following of fans which is OK but I think this "mob" is supporting Yuvraj because of his brand value which is being created by the Indian media and ad companies.
His debut in ODIs, was in 2000 but in Test, which the real form of cricket, he appeared in 2003. This "talented" player spent three years to create a place in test squad and still finding difficulties to be the Test member. Suresh Raina is more reliable than him in tests. What a talent? In ODIs he has avg. of 37, in tests he has 35 and in T20s he has 34. Approximately, they all are the same. So he is in same form in all sort of game. Now take this, he has scored only 1300 runs in Tests. What the hell? Even Harbhajan Singh has more runs than him. After playing about 10 years of cricket, Yuvraj singh has made a very slow progress in achieving the title of "talented player" in my view. What kind of cricketer he is who has nothing to be proud in the real form of cricket. In my view "a cricketer is good when he is good in Test cricket and bad when he is bad in it." So i would say there are hundreds of cricketers who are & were better than Yuvraj but didn't get the chance and are now living in agony. Here are few of them:
1. S. Sriram (Has 5 double centuries & 1 triple century, but all in vain.)
2.Vijay Bharadwaj (was "man of the series" in his first ODI series, but didn't get chance.)
3. Hemang Badani (has equal avg. as Yuvraj but he is not the charming one.)

बैंक में नौटंकी .......(भाग-2)...."मोक्ष की प्राप्ति"...........

Friday, August 28, 2009

करीब 15 मिनट बाद एक "बाबू" सा दिखने वाला प्राणी मुंह में पान को भूंसे की तरह ठूंसे "जुगाली" करता हुआ प्रकट हुआ । यह "जुगाली" वह क्रिया है जो गाय, भैंस जैसे जानवर टाइम-पास के लिए करते हैंवह आकर अपने काउंटर पर बैठ गयामैं उसकी ओर लपका और बोला " सर, एक ड्राफ्ट बनवाना है , फॉर्म दे दीजिये । " इस पर उसने मुझे दो मिनट रुकने का इशारा किया और अपने दो रुपये के पान का पूरा पैसा वसूलने में तल्लीन हो गयाफिर थोडी देर में पान की इज्ज़त रौंदकर और उसे थूककर चीखा " लाइन में आइये । " मैंने कहा " सर, लाइन नही है, मैं अकेला ही हूँवैसे मैंने अपने मन में कुछ और ही कहा था कि "हम जहाँ खड़े होते हैं , लाइन वहीँ से शुरू होती है । " इस पर वो बोला " तो अकेले ही लाइन बनाकर आओ । " मैंने भी अपने अन्दर की "आग" को ज्यादा हवा देते हुए अकेले ही लाइन बनाई (पता नही कैसे पर बनाई ज़रूर ) और ठीक उसके सामने जाकर खड़ा हो गयाअब उसने पूछा " आपका अकाउंट है यहाँ ? बिना अकाउंट के नही बनेगा ड्राफ्ट । " मैंने कहा " मेरा अपना अकाउंट हैमुझे फॉर्म दे दीजिये । " उसने भी "दानवीर कर्ण" की तरह अपने "कवच-कुंडल"..... मेरा मतलब है कि ड्राफ्ट वाला फॉर्म दे दियामैं एक तरफ़ होकर फॉर्म भरने लगा
मैं एक बात और यहाँ उद्धृत कर दूँ कि इन बैंकों में प्रयोग होने वाले फॉर्म अगर हिन्दी में हुए तो हिन्दी इतनी "फाडू" होगी कि "गिरिजा जी" (जो लोग इनको जानते हो वोह मुझसे बाद में पूछ लें ) भी समझ पाएं और अगर इंग्लिश में हुए तो इतने एब्रिविएशन होंगे कि आपका बाप भी उसको समझ पाये । अब ऐसी स्थिति में अगर आपने "बाबू प्रजाति" के किसी नुमाइंदे से पूछ लिया कि फलां जगह क्या भरना है तो भैय्या वो आपके लालन-पालन, शिक्षा और सामाजिक जीवन पर ऐसा कुठाराघात करेगा कि जितना "कबीर" ने भी पुरानी कुरीतियों पर नही किया होगाहालाँकि इतना सब कुछ मालूम होने के बावजूद भी मैंने यह गलती कर ही दीफिर मेरे साथ भी उतना नाटक हुआ जितना होना चाहिए थाअरे भाई!! मैंने इतना बड़ा पाप जो कर दिया था और सनातन धर्म के हिसाब से मुझे सजा भी मिलनी ही थी सो मैंने सजा भोग भी लीफिर किसी तरह इन सारी गलतियों को दुहराते-तिहराते मैंने जैसे-तैसे फॉर्म भर कर जमा किया । शाम पाँच बजे जब मुझे ड्राफ्ट मिला टो मुझे ज्ञान हो गया कि "मोक्ष" मिलने पर भी ऐसी ही अनुभूति होगीइन सब बातों से यह भी स्पष्ट हो गया कि "सरकारी बैंक" के द्वार "मोक्ष के द्वार" के समकक्ष हैं



अगर किसी व्यक्ति को मेरे द्बारा कही गई बातों और "बाबू प्रजाति" जैसे शब्दों के सटीक किंतु अनुचित प्रयोग पर आपत्ति है टो मैं (FROM BOTTOM OF MY HEART) उनसे बिल्कुल माफ़ी "नहीं" मांगता हूँ और आशा करता हूँ कि वे मुझे बिल्कुल माफ़ "नहीं" करेंगे

कर्मावेश..........

Tuesday, August 18, 2009

तबियत ख़राब होने की वजह से , " बैंक में नौटंकी " का दूसरा भाग नही लिख पाया । जल्दी ही लिखकर ऑनलाइन कर दूँगा ।

धन्यवाद !!!
--श्रुतकीर्ति

बैंक में नौटंकी ...........(भाग-१)

Saturday, August 8, 2009

अभी जल्दी ही मेरा एक सरकारी बैंक जाना हुआ मैं बैंक का नाम नही लेना चाहता , पर भारत के बड़े सरकारी बैंकों में से एक है मेरे भाग्य में उस दिन एक ड्राफ्ट बनवाना लिखा था , शायद साथ में ये भी लिखा था कियह ड्राफ्ट इसी बैंक से बनवाना है मैं जैसे ही बैंक पहुँचा, दरवाज़े पर काफ़ी भीड़ थी जिसे देखकर ये लग रहा था की भारत में बैंकिंग का भविष्य काफ़ी सुखद है , साथ ही बैंक कर्मियों का भी अन्दर जाने में ही 10 मिनट लग गए मैंने चारों तरफ़ नज़र घुमाई और जो सबसे "कमज़ोर कर्मचारी" लगा उसकी तरफ़ कदम बढ़ा दिए मैंने उसके काउंटर पर पहुंचकर उससे पूछा " अंकल, ड्राफ्ट कहाँ बनेगा यहाँ ?" उसने कोई जवाब नहीं दिया मुझे ऐसा लगा की शायद वो सुन नही पाया तो मैंने दुबारा तेज़ आवाज़ में पूछा फिर भी कोई जवाब नही मिला मैंने तीसरी बार पूछा तो "अंकल" जी ने अपनी अकडी हुयी गर्दन ऊपर उठाई और गिद्ध जैसी छोटी पर चमकदार आंखों से मुझे घूरा और कहा, " आप देख नही रहे हैं , मैं कुछ काम कर रहा हूँ " मैंने भी अपने अन्दर के "रावण" को शांत रखकर "राम" को बाहर निकाला और कहा, "बस ये बता दीजिये की ड्राफ्ट बनता कहाँ है ?" अंकल जी ने अपनी खोपडी को रजिस्टर में घुसाए रखते हुए दूसरे काउंटर की तरफ़ इशारा किया और धीरे से उसी रजिस्टर में समाधि ले ली मैं उस काउंटर की तरफ़ गया वहां 7-8 लोग लाइन में लगे थे मैं जाकर लाइन में लग गया और अपनी बारी का इंतज़ार करने लगा करीब २० मिनट बाद जब मेरा नम्बर आया तो पता लगा की ड्राफ्ट बनाने वाले "बाबूजी", ( ये "बाबूजी" वही प्रजाति है,  जिसने भारत का "कल्याण" किया है ), अभी आए नही हैं जब वो जायें तो उनसे ड्राफ्ट बनाने का फॉर्म ले लूँ और भर कर जमा कर दूँ मैं दूसरी तरफ़ जाकर खड़ा हो गया और  इंतज़ार करने   लगा  

शेष अगले भाग में .............








आज सुबह मुझे ये प्राप्त हुआ..........

Friday, August 7, 2009



ये काफ़ी मज़ेदार है......................... I M LOVIN IT.........

फोटो का बड़ा रूप देखने के लिए उस पर क्लिक करिए......




 
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