नैतिक शिक्षा की ज़रुरत है .......

Sunday, July 11, 2010

अभी कुछ दिन पूर्व मैंने एक अखबार में पढ़ा कि दिल्ली के एक स्कूल के छात्र ने अपनी टीचर के साथ बदसलूकी की । पहले तो मैं थोडा अचंभित हुआ पर धीरे धीरे सामान्य भी हो गया क्योंकि आज कल जो माहौल है उस हिसाब से यही होना था । शिक्षा के क्षेत्र में बड़े बड़े परिवर्तन किये जा रहे हैं । नम्बर्स की जगह ग्रेड की व्यवस्था हो रही है जिससे बच्चों पर पढाई का बोझ कम पड़े । पर मेरा ये मानना है कि ये बोझ इतना कम भी ना हो जाये कि बच्चे इसकी जिम्मेदारी लेने से भी बचें । वैसे इतने सुधार की भी ज़रुरत नहीं है क्योंकि इसी शिक्षा के दम पर हम दुनिया का सर्वश्रेष्ठ दिमाग तैयार करते हैं और विश्व कि हर यूनिवर्सिटी में अपना परचम लहराते हैं । पर अब जो सुधार के नाम पर बदलाव किये जा रहे हैं वे वही हैं जो अमेरिका ने 50 साल पहले किये थे ताकि बच्चों पर बोझ कम पड़े । और देखिये अमेरिकी संस्कृति और बच्चों का क्या हाल है ?? और तो और ओबामा ने भी भारतीय शिक्षा पद्धति की तारीफ़ की थी पर इन बदलावों के साथ नही । अब अमेरिका अपनी शिक्षा पद्धति में परिवर्तन कर उसे भारत की तरह बनाने पर जोर दे रहा है पर हम लोग उनसे 50 साल पीछे हैं और वहीँ जा रहे हैं जहाँ वे अब हैं ।

मैं इन सुधार करने वाली कमेटियों से यही कहूँगा कि भैय्या आपको जो करना है वो करो पर एक काम और कर दो कि सभी बोर्ड के सभी स्कूल क्लास 12 तक नैतिक शिक्षा अनिवार्य कर देंगे । क्योंकि आजकल तो लोगों को सही और गलत में ज़रा सा भी फर्क नहीं महसूस हो रहा । तो कम से कम अगर बिना मन के भी नैतिक शिक्षा पढ़ी तो कुछ तो दिमाग में जायेगा ही । बिना नैतिक शिक्षा के अध्ययन के आज का बच्चा एक मूर्ख, असभ्य, बेशर्म और मानसिक रूप से विकृत सभ्यता और पीढ़ी का हिस्सा बनता जा रहा है ।

ये साला पानी काहे नहीं बरस रहा बे ????

Friday, July 9, 2010

........................हमारा तो दिमाग भन्नायरहा है । ये साला पानी काहे नहीं बरस रहा है । या कौन सा नवा नाटक अहै??? सब जने कहत रहें कि 15 जून तक मानसून आवत है पर ससुरा ये मानसून है कौन ??? और ये इतना बुलाने पर भी आ काहे नहीं रहा है ? मतलब अगर ज्यादा नाटक कर रहा है तो सरकार को चाहत है कि शक्ति का प्रयोग करें । या फिर केहू का भेजें उहका मनावै खातिर ??? मतलब पानी तो मांगता ही है ना । तो फिर काहे का सोचना । बुलाओ साले मानसून के अब्बा को ...........

नक्सलवाद : समस्या का हल या स्वयं एक समस्या ?

..........................नक्सलवाद, आजकल बड़ा चर्चा का विषय बन गया है । बात गंभीर भी तो है । पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से जन्मे इस "वाद" को चारू मजूमदार, कानू सान्याल और जांगल संथाल ने "हिंसक" क्रांति का नाम देकर 1967 में शुरू किया था । तब ये एक छोटा मोटा स्थानीय आन्दोलन था । पर अब नहीं रहा । वर्तमान समय में ये हमारे देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है । क्योंकि जब आपके घर का आदमी ही आपका दुश्मन हो जाये तो बात काफी गंभीर हो जाती है ।
...............................पर अब वो बात नहीं रही । मेरे कहने का मतलब है कि आन्दोलन अब बिना किसी "वजह" के हो रहा है और अपने उद्देश्य से भटक भी गया है । आप विकास के मुद्दे को ट्रेन उड़ाकर कैसे उठा सकते हैं या फिर किसानों की समस्या को निर्दोष लोगों को मारकर कैसे हल कर सकते हैं । ये बात मानी जा सकती है कि सरकारों ने नक्सल प्रभावित क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया है । पर किसी भी समस्या को हल करने का ये सबसे घटिया और शर्मनाक तरीका है । अब तो हद ही हो गयी है । जिस भी किसान की जिस साल फसल ख़राब हो जाती है वो उस साल नक्सलवादी बन जाता है और अगले साल अगर फसल सही हो गयी तो फिर किसान । ऐसी समस्या का कोई तुरत-फुरत हल नहीं निकल सकता । इस समस्या का हल है शिक्षा और सतत-स्थिर-विकास ( sustainable development ) ।
..........................नक्सलियों की मदद के लिए चीन, पाकिस्तान और बंगलादेश के कई संगठनों के नाम सामने आये हैं । मतलब यार शर्म की बात है कि इतने "संयोजित" (Organized) तरीके से कोई सहायता का काम नहीं होता । कोई भी संगठन एडस या किसी और समस्या से जूझने के लिए इतनी माथापच्ची नहीं करता , इतना खून नहीं बहाता । पर जब ट्रेन की पटरी उड़ानी होती है या सुरक्षा बलों की गाडी को बम या लैंडमाइन से उडाना हो या कोई पुलिस चौकी में आग लगानी हो तो सबकी समस्याएं बड़ी विकट हो जाती हैं और इतनी ज्यादा विकट हो जाती हैं कि बस यही एक हल रह जाता है कि एक निर्दोष व्यक्ति को मार दो और उसे पता भी ना लगे कि वो क्यों मरा ? और मरा कि शहीद हुआ ।
..........................भाई मेरी समझ में तो नहीं आता ऐसा आन्दोलन । लगता ही नहीं है कि ये उन्ही गाँधी जी का देश है जो अहिंसा का पाठ पढ़ा-पढ़ा के मर गए । पर साला किसी के दिमाग में एक धेला तक नहीं घुसा ।

..........................आज का नक्सलवाद आन्दोलन उस प्राचीन जगदगुरु भारतवर्ष के गौरवमयी इतिहास के लिए एक धब्बा है और हमारी सारी
परम्पराओं और मान्यताओं के अस्तित्व पर एक प्रश्नचिन्ह ।

हम कोई वैश्विक खेल क्यों नहीं खेल सकते??

Tuesday, July 6, 2010


dddddddddपूरी दुनिया इस समय फुटबाल वर्ल्ड कप के नशे में चूर है । जिसे देखो वो लियोनेल मैसी और जर्मनी के क्लोज़ की बात कर रहा है । यहाँ तक कि केवल क्रिकेट देखने वाले भी चिरकुटई छोड़कर फुटबाल देख रहे हैं । पर मुझे एक बात का अफ़सोस है कि हमारी टीम कब ऐसे किसी महाकुम्भ में शरीक होगी ?
ध्यान दिया जाये तो हॉकी को छोड़कर हम लोग कोई भी ऐसा खेल नहीं खेलते है जो पूरी दुनिया में खेला जाता हो । यदि खेलते भी हैं तो बेहद फिसड्डी और घटिया प्रदर्शन करते हैं । उसका सीधा सा कारण है कि हमारे यहाँ किसी भी खेल संघ की बागडोर उसके किसी पुराने जानकार या खिलाडी के हाथ में ना होकर किसी भिखारी नेता या नौकरशाह के हाथ में है । ये लोग अपने निजी स्वार्थ और सरकारी सहायता के लिए इन संघों को अपनी बपौती मानकर बैठ गए हैं । केपीएस गिल ने हॉकी इंडिया की बैंड बजा रखी है । ये तो हॉकी को छोड़ ही नही रहे हैं । ऐसे ही ना जाने कितने ही खेल संघ हैं जो इन जैसे "महानुभावों" के अनुभव के वट-वृक्षों के तले दब के रह गए हैं । उनका कोई अस्तित्व नहीं बचा है । अगर कुछ बचा है तो वो है नेता जी का सदा खाली रहने वाला कटोरा । जिसमें आये हुए सरकारी धन को वे पता नहीं कहाँ पचा जाते हैं ?

3333333333बात काफी गंभीर है । हमारे देश में कोई खेल तरक्की नहीं कर रहा है (क्रिकेट को छोड़कर, क्योंकि ये खेल नहीं बिज़नेस है) भ्रष्टाचार ने जब सबकी कमर तोड़ दी है तो खेल कैसे अछूते रह सकते हैं । पर मुझे तो इस बात पर आश्चर्य होता है (कभी-कभी) कि इन लोगों के बेशर्मी की हद क्या है ???
 
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