61 वें गणतंत्र दिवस पर............

Tuesday, January 26, 2010

आज भारत का गणतंत्र दिवस है । सब लोग खुशियाँ मना रहे हैं । पता नहीं क्यों ? पता नहीं ख़ुशी किस बात की है , ऐसी क्या तोप दगा दी हमने इन साठ सालों में । बस सुबह उठे, झंडा लहराया, टूटा फूटा राष्ट्रगान गाया, दिन भर देश भक्ति के गाने बजाये और दूसरों को सुनने पर मजबूर किया, टीवी पर गाँधी या क्रांति फिल्म देख के चहक लिए और बस हो गया गणतंत्र दिवस । और हाँ छुट्टी भी मना ली । इस काम में बहुत तेज़ हैं हम लोग । कुछ हो न हो छुट्टी और जश्न ज़रूर मनाते हैं हम लोग । इन साठ साल में हमने काफी प्रगति की है, जो कि एक बड़ी बात है । पर अभी ऐसी तमाम चीज़ें हैं जिन पर काम होना बाकी है । सबसे बड़ी समस्या है जनसँख्या । मेरा मानना है कि हमारी सारी समस्याओं की जड़ यही है । हम चार कदम आगे बढ़ते हैं यह हम को साढ़े तीन कदम पीछे खींच लेती हैं । दूसरी तरफ हैं अशिक्षा, गरीबी, कुपोषण और बेरोजगारी । यहाँ कोई इन क्षेत्रों में काम करना ही नहीं चाहता । साथ में नक्सल, आतंकवाद, जातिवाद, और राज ठाकरे (क्षेत्रवाद) जैसी समस्याएं हैं ।
हमें प्रशासनिक सुधार करने होंगे । इस देश में बाबू सबसे बड़ा सत्यानाशी है । यह बाबू शब्द तो अब गाली बनने की कगार पर है । हमारी पुलिस में सुधार की ज़रुरत है । हमारी पुलिस अभी 1860 के मैनुअल पर काम कर रही है जो कि अँगरेज़ लोग जाते वक़्त हमको थमा गए थे और साथ में हमारी आँख पर पट्टी भी बांध गए थे और कह गए थे कि "भैया, आँख मत खोलना । "
हमारे देश के योजना आयोग के मुताबिक इस देश में 26% लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं । इस देश में अगर किसी की आय प्रतिदिन ५०रूपये है तो वह गरीबी रेखा के नीचे है । और तो और अगर ये मानक १०० रूपये प्रतिदिन कर दिया जाये तो ८० % लोग देश में गरीबी रेखा के नीचे हैं । हमारे मानक भी इतने पुराने हैं कि अब इनका कोई मतलब नही रहा ।
तो दखा जाए तो हमारे पास इतराने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है । जो यहाँ अमीर है वो और अमीर होता जा रहा है । केवल मोबाइल फ़ोन बेंच लेने से कोई देश महान नहीं बन जाता । हमें जमीनी स्तर से काम शुरू करना होगा । हमें शहर नहीं गाँव की ओर चलना है । और चलना ही नहीं भागना भी है । क्योंकि पहले ही काफी देर हो चुकी है । देश के युवाओं को आगे आना होगा । सरकारी नौकरी के पीछे भागने से कुछ नहीं होगा । अगर हर आदमी ये ठान ले कि वह केवल अपने गाँव के लिए काम करेगा तो देखते ही देखते पूए देश का थोबड़ा बदल जायेगा । हमें इस गरीबी की रेखा को विकास के रबर से मिटाना है । तो भाई लोग संभल जाओ और अपना अपना काम ठीक से करो ।
बस मेरा तो यही नारा है "गाँव चलो "
श्रुतकीर्ति सोमवंशी "शिशिर"
2300 Hrs. 26 जनवरी 2010
रायबरेली

एक मंज़र

Friday, January 22, 2010


उफुक के दरीचे से किरणों ने झांका
फ़ज़ा तन गयी रास्ते मुस्कुराये
सिमटने लगी नर्म कुहरे की चादर
जवां शाखसारों ने घूंघट उठाये
परिंदों की आवाज़ से खेत चौंके
पुर-असरार लय में रहट गुनगुनाये
हंसीं शबनम-आलूद पगडंडियों से
लिपटने लगे सब्ज़ पेड़ों के साए
वो दूर एक टीले पे आँचल-सा झलका
तसव्वुर में लाखों दिए झिलमिलाये
( साहिर लुधयानवी )

ओबामा को शांति का नोबेल.........

Thursday, January 21, 2010



अमेरिकन राष्ट्रपति बराक ओबामा को वर्ष 2009 में शांति के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया । पुरस्कार देने वाली ज्यूरी ने शायद पहली बार किसी व्यक्ति को नोबेल इस लिए दिया कि वो भविष्य में शांति के लिए कुछ करने वाला है । बराक ओबामा वास्तव में ऐसी स्थिति में हैं कि वे ऐसा कुछ कर सकते हैं , वो अमेरिका के राष्ट्रपति जो ठहरे । वर्षों से यह परंपरा चली आ रही है कि संपूर्ण विश्व में शांति और अशांति के लिए अमेरिका ही जिम्मेदार है । शांति के लिए भले ही न हो पर अशांति के लिए तो है । पहले अफगानियों को मदद दी कि वो रूस में शांति भंग करें फिर अब उन्ही अफगानियों से लड़ रहे हैं । यही हाल पकिस्तान का भी होगा । खैर बात तो ओबामा बाबू कि चल रही थी । अब संपूर्ण विश्व उनकी तरफ देख रहा है कि वो परमाणु अप्रसार कार्यक्रम, निरस्त्रीकरण और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे पर ठीक उसी तरह मुखातिब होंगे जैसे कि वो अपने चुनावों के दौरान "YES, WE CAN" कहते नज़र आते थे। मज़ेदार बात तो ये है कि अफगानिस्तान में उन्होंने सैनिकों कि संख्या बढ़ा दी पाकिस्तान को आर्थिक मदद का ऐलान किया और कोपेनहेगेन में ग्लोबल वार्मिंग पर हुयी बैठक में विकसित देशों से मिलकर वार्ता का कबाड़ा कर दिया । अब ऐसी स्थिति में मुझे तो ये कहीं से नहीं लगता कि वो शांति के नोबेल के लिए सही चुनाव थे । पर अब दे ही दिया है तो देखते हैं कि वो क्या ऐसा कोई चमत्कार करेंगे जिससे अमेरिका कि छवि और विश्व का भविष्य कुछ अच्छा हो जाये ।




श्रुतकीर्ति सोमवंशी "शिशिर"
19.01.2010
लखनऊ
 
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