" मैं मुसाफिर हूँ, मुझे राह नहीं मंजिल से मतलब है "

Sunday, January 8, 2012

मैं जिंदगी के सूखे खडंजों पर,
अकेला चला जा रहा था...आहिस्ता आहिस्ता,
दूर कहीं एक पेड़ दिखा,
जो मुरझाया सा लगा,
मैं उसके नीचे खड़ा होकर सुस्ताने लगा,
फिर धीरे से दुबारा बढ़ा,
अपनी मंजिल की ओर,
तभी किसी ने पीछे से पुकारा-
कहाँ जा रहे हो ?
मैंने कहा मैं ऐसा मुसाफिर हूँ,
जहाँ मंजिल बुला ले,
मुझे राह नहीं मंजिल से मतलब है l


मैंने जानने की कोई कोशिश नहीं की,
कि किसने पुकारा था...
उसकी ओर देखा भी नहीं,
मैंने सोचा गुज़रा हुआ कल होगा l
शायद कुछ कहना चाह रहा हो...
मैंने दुबारा मुड़कर देखा तो,
कई सारे साए थे पर चेहरे स्याह थे...
ध्यान दिया तो हर चेहरे में खुद को पाया,
जो मेरे गुज़रे हुए कल से निकल कर ,
आइना बनकर खड़े थे l
मैंने खुद को देखा उन चेहरों में,
फिर मैं आगे बढ़ गया,
उन्ही सूखे खडंजों पर l

2 comments:

  1. Main to musafir hun, jahaan manzil bula le..
    Abstractism n symbolism becum d realm of poetry here! Nyc!!

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