कहते हैं ,जब बंगाल को छींक आती है तो देश को जुकाम हो जाता है और अब बंगाल को खांसी आ गयी है । आज 13 मई को 13 साल पुरानी "तृणमूल कांग्रेस" ने बूढ़े और अप्रासंगिक (शायद सबसे उपयुक्त रहेगा ये कहना) हो चुके "वामपंथी" दल को 40 साल बाद उसकी राजगद्दी से उतार दिया है । ममता बनर्जी ने लेफ्ट के लाल किले को ढहा दिया है । ये बंगाल में एक नयी सुबह का संकेत है, पर ये सुबह इतनी आसानी से नहीं आई है । इसके लिए ममता बनर्जी ने बेहद कठिन राह चुनी थी । इतने सालों से वो वामपंथियों से अकेले लड़ रहीं थीं । कांग्रेस तो केवल दिखावा कर रही थी । पर तृणमूल ने तो पंचायत स्तर से लड़ाई शुरू की और लोकसभा तथा विधानसभा जैसे मोर्चों पर लेफ्ट को पटखनी दी है । 2006 के चुनावों में करारी हार के बावजूद उन्होंने संघर्ष जारी रखा । 1998 में तृणमूल कांग्रेस की नीव रखने के बाद से ममता ने बहुत संघर्ष किया है । वो अक्सर गरीबों, किसानों और ज़रुरतमंदों के लिए अनशन और हड़ताल पर बैठ जाती हैं । सिंगूर मामले में तो अनशन पर जाने से उनकी हालत काफी ख़राब हो गयी थी । अटल जी ने कहा था कि वो महिला जिद्दी है, मर जाएगी पर अनशन नहीं तोड़ेगी । आज उन संघर्ष के दिनों का फल मिला है । वो बंगाल में राजनीति की नयी इबारत लिख रही हैं ।
किसी भी राजनैतिक दल के लिए लेफ्ट का तिलिस्म तोडना टेढ़ी खीर साबित होता रहा है पर मेरी समझ से लेफ्ट की हार के दो प्रमुख कारण रहे । पहला ये कि पिछले 40 साल में बंगाल में विकास के नाम पे एक धेला भी यहाँ से वहां नहीं हुआ । आज़ादी के बाद से सब जस का तस पड़ा हुआ है । वहीँ दूसरा कारण ये है कि पहली बार जनता के सामने एक दमदार विकल्प भी मौजूद था । सो वही हुआ जो होना चाहिए था । वही विकल्प लेफ्ट के लिए रायता फैला गया । इन सब बातों के बीच एक बात कायम है कि ऐसी जीतों से भारत में लोकतंत्र की शक्ति और मजबूत हुयी है । साथ ही हम लोकतान्त्रिक रूप से एक मजबूत राष्ट्र बनकर उभरे हैं । इस देश में अभी भी जनता का राज है । जनता जिसे चाहती है उसे गद्दी सौंपती है चाहे वो ममता बनर्जी हों या जयललिता ।
किसी भी राजनैतिक दल के लिए लेफ्ट का तिलिस्म तोडना टेढ़ी खीर साबित होता रहा है पर मेरी समझ से लेफ्ट की हार के दो प्रमुख कारण रहे । पहला ये कि पिछले 40 साल में बंगाल में विकास के नाम पे एक धेला भी यहाँ से वहां नहीं हुआ । आज़ादी के बाद से सब जस का तस पड़ा हुआ है । वहीँ दूसरा कारण ये है कि पहली बार जनता के सामने एक दमदार विकल्प भी मौजूद था । सो वही हुआ जो होना चाहिए था । वही विकल्प लेफ्ट के लिए रायता फैला गया । इन सब बातों के बीच एक बात कायम है कि ऐसी जीतों से भारत में लोकतंत्र की शक्ति और मजबूत हुयी है । साथ ही हम लोकतान्त्रिक रूप से एक मजबूत राष्ट्र बनकर उभरे हैं । इस देश में अभी भी जनता का राज है । जनता जिसे चाहती है उसे गद्दी सौंपती है चाहे वो ममता बनर्जी हों या जयललिता ।
सिर्फ वाहवाही लिखने के अलावा तुमने मेरे लिए कुछ छोड़ा ही नहीं भतीजे ! वाह-वाह !
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