महत्वाकांक्षा

Sunday, November 8, 2009

कुछ समय पहले मैंने "अल्केमिस्ट" नाम का उपन्यास पढ़ा । काफ़ी अच्छा था । पर गलती ये हो गई कि उपन्यास मैंने अंग्रेजी की बजाय हिन्दी में पढ़ा । इसीलिए ऐसा लग रहा था कि बीच बीच में कुछ छूट सा रहा है । कभी कभी बोरियत भी हो रही थी क्योंकि अनुवादक कभी भी लेखक के मन की बात नही जान सकता । जब तक कि वो ख़ुद ही लेखक न हो । पर अगर इस उपन्यास के बारे में कुछ कहना हो तो मैं कहूँगा कि यह एक अत्यन्त विस्मयकारी किंतु सत्यान्वेषी उपन्यास है । मनुष्य की इच्छा और महत्वाकांक्षा में क्या अन्तर है यह मैंने इसे पढ़ कर जाना । अपनी इच्छा के लिए हम क्या कर सकते हैं और अपनी महत्वाकांक्षा के लिए क्या-क्या नही कर सकते , ये सब समझ में आ गया । बहुत से लोग इस शब्द "महत्वाकांक्षा" को पढ़ते रहते हैं, रटते रहते हैं, बताते रहते हैं, सोचते रहते हैं, कहते रहते हैं कि "सिकंदर बड़ा महात्वाकांक्षी था", "फलां आदमी बहुत महात्वाकांक्षी था", पर जीवन भर "समझ नही पाते ।" आदमी पेट से महात्वाकांक्षी पैदा नही होता । उसका साहस, पौरुष और हमेशा कुछ नया करने-सीखने की इच्छा उसे महात्वाकांक्षी बनाती है । यह बात और भी सोचने लायक है कि महत्वाकांक्षा, लालच से एकदम उलट चीज़ है । लालच के पीछे जो भाव है वो अच्छा नही है । पर महत्वाकांक्षा हमें जीवन में हमेशा सबसे आगे ले जाती है ।
यहाँ पर मैं उपन्यास का एक अंश उद्धृत करना चाहूँगा जो मुझे काफ़ी पसंद आया:
"उस खामोशी में भी लड़का समझ गया कि उसी की तरह ये रेगिस्तान,हवा और सूरज सभी उस सर्वभौम हाथ द्वारा लिखे चिन्हों को समझने की कोशिश कर रहे हैं । अपने लिए बनाये रास्तों पर चलने की दुआ मांग रहे हैं और उस नगीने की सतह पर लिखी इबारत को पढने की कोशिश कर रहे हैं । उसने देखा कि शकुन सारी धरती और पूरे अन्तरिक्ष में बिखरे पड़े हैं और उनके होने का कोई कारण या महत्व नही था । वह देख सकता था कि हवा, सूरज या लोगों में से किसी को भी मालूम नही था कि उनकी सृष्टि क्योंकर हुयी है । केवल वह सार्वभौम हाथ ही इस सृष्टि का कारण जानता था । सारे चमत्कार उसी हाथ के बस में थे । वह हाथ ही जानता था कि क्यों वे छः दिनों के सृजन में ब्रह्माण्ड को उस बिन्दु तक ले आए , जहाँ वह एक उत्कृष्ट कृति बन गया । "
- पाउलो कोएलो "अल्केमिस्ट" से ,

श्रुतकीर्ति सोमवंशी "शिशिर"
07.11.09
लखनऊ

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