काफी समय से मैं ये गाना सुनता आ रहा हूँ । बहुत सही लफ़्ज़ों का प्रयोग किया है साहिर साहब ने । वैसे तो ये ग़ज़ल अमर हो चुकी है पर आज मन किया कि क्यों न इसे "अनुभाव" पर भी अमर कर दूं ।
ये महलो ये तख्तो ये ताजो की दुनिया,
ये इंसान के दुश्मन समाजो की दुनिया,
ये दौलत के भूखे रिवाजो की दुनिया,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।
हर एक जिस्म घायल हर एक रूह प्यासी,
निगाहों में उलझन दिलों में उदासी,
यहाँ एक खिलौना है इंसान की हस्ती,
ये बस्ती है मुर्दा परस्तो की बस्ती,
यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।
जवानी भटकती है बदकार बनकर,
जवान जिस्म सजते हैं बाज़ार बनकर,
यहाँ प्यार होता है व्यापार बनकर,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।
ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है,
वफ़ा कुछ नहीं दोस्ती कुछ नहीं है,
जहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।
जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया,
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया,
तुम्हारी है तो तुम्ही संभालो ये दुनिया,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।
-साहिर लुधियानवी