कुछ दिन पहले की बात है मुझे रिज़र्वेशन कराने का सौभाग्य (?) प्राप्त हुआ । मैं रायबरेली से दिल्ली का रिज़र्वेशन करा रहा था । ट्रेन थी पद्मावत एक्सप्रेस । घर में कहा गया जितनी जल्दी जाओगे उतनी जल्दी रिज़र्वेशन हो जायेगा । पर एक बात बता दूं कि भारत में जल्दी करने से कुछ नहीं होता । आप चाहे जितनी जल्दी पहुँच जायें , आपको रिज़र्वेशन की लाइन हमेशा उतनी ही लम्बी मिलेगी । जैसे लगता इतने लोग भौतिक विज्ञान के किसी "नियतांक" (CONSTANT) के तरह सभी तरह क्रियाओं में "स्थिर" रहते हैं या फिर कोई उनपर "PAUSE" की बटन दबा कर भूल गया है । पर मैं भी क्या करता, जाकर लग गया उस लाइन में । पर उस समय तक काउंटर खुले नहीं थे । थोड़ी देर में वो कर्मचारी आ गया पर काउंटर खोलने में उसने वही शर्म और झिझक दिखाई जो एक नव-विवाहिता अपना घूंघट खोलने में दिखाती है । फिर धीरे से जनाब हम सबसे मुखातिब हुए । सब लोग उसे मन ही मन "गरिया" रहे थे पर सबके चेहरे कुछ और ही बयां कर रहे थे ।
मैं भी लाइन में लगा था कि कब "कपाट" खुलें और मैं भी दर्शन करूं । लाइन धीरे धीरे रेंग रेंग कर आगे बढ़ रही थी । पीछे वाले आगे वालों को कोस रहे थे - " भैया , सारी इन्क्वायरी यहीं कर लोगे का??.......जल्दी कीजिये भाईसाब.......अरे !! अगर तय नहीं था काहे आ गए रिज़र्वेशन करवाने ??.....कुछ ऐसी ही बातें निकल रही थी । कुछ लोग ऐसे होते हैं जो लाइन में नहीं लगते । वो बगल खड़े रहते हैं और बिना लाइन में लगे ही अपना काम करवाना चाहते हैं । पर वे जैसे ही अपना काम करवाने के लिए काउंटर की तरफ लपकते हैं , कोई सुधी व्यक्ति उनको सुवचन चिपका देता है । और कुछ लोग ऐसे होते हैं जो खुद काउंटर तक नहीं आते , वे दूर खड़े रहते हैं और अपनी पत्नी या बहन या किसी सम्बन्धी महिला को काउंटर पर भेज देते हैं । वो महिला बिना लाइन में लगे रिज़र्वेशन करवाकर चली जाती हैं और कोई पुरुष जो लाइन में खड़ा है वो उस महिला से बदतमीजी तो कर नहीं सकता पर मन ही मन उस आदमी को ऐसे-ऐसे "सुवचन" देता हैं कि अगर कोई सुन ले तो बहरा हो जाये ।
समय बिताने के लिए कुछ लोग सचिन-धोनी का करियर बनाने लगते हैं और कुछ लोग राजनीति में नए नए आयाम जोड़ देते हैं । पर सबका ध्यान अपना नम्बर आने पर ही केन्द्रित होता है । और नम्बर आते ही अपने आस पास खड़े लोगों को ऐसे भूल जाते हैं जैसे गजिनी में आमिर खान ।और जब रिज़र्वेशन मिल जाता है तो बाकी लोगों को ऐसा महसूस करवाते हैं जैसे- "तुम लोग अभी यहीं तक पहुंचे हो? मुझे देखो मैं तो करवा भी चुका । "
पर कोई माने या ना माने रेलवे स्टेशन जाकर रिज़र्वेशन करवाना बद्रीनाथ यात्रा से ज्यादा कठिन और पुण्य देने वाला होता है ।
भारतिय रेल का खेल
ReplyDeleteएक अच्छी पोस्ट लिखी है आपने ,शुभकामनाएँ और आभार
आदरणीय
हिन्दी ब्लाँगजगत का चिट्ठा संकलक चिट्ठाप्रहरी अब शुरु कर दिया गया है । अपना ब्लाँग इसमे जोङकर हिन्दी ब्लाँगिँग को उंचाईयोँ पर ले जायेँ
यहा एक बार चटका लगाएँ
आप का एक छोटा सा प्रयास आपको एक सच्चा प्रहरी बनायेगा
।
Excellnt job... too good, creative and real skecth of couters...
ReplyDeleteCongrats...wermsc
बहुत बढ़िया पोस्ट लिखी है | मै आपकी बातो से सो प्रतिशत सहमत हूँ | ये वर्ड वेरी फिकेशन हटा दे |
ReplyDeletenaye zamane ka vyangya....bahut badhiya.....
ReplyDeletesabkuchh thik hai, samsya aapne bataya, kuchh samadhan bhi sujhana aapka kartvya hai
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