संसार में पाप कुछ भी नही है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मनः प्रवृत्ति लेकर उत्पन्न होता है- प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के रंगमंच पर एक अभिनय करने आया है। अपनी मनः प्रवृत्ति से प्रेरित होकर अपने पाठ को वह दुहराता है - यही मनुष्य का जीवन है । जो कुछ मनुष्य करता है, वह उसके स्वभाव के अनुकूल होता है और स्वभाव प्राकृतिक है । मनुष्य अपना स्वामी नही है , वह परिस्थितियों का दास है - विवश है । वह कर्त्ता नहीं है , वह केवल साधन है । फिर पुण्य और पाप कैसा ?
मनुष्य में ममत्व प्रधान है । प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है । केवल व्यक्तियों के सुख के केन्द्र भिन्न होते हैं । कुछ सुख को धन में देखते हैं , कुछ सुख को मदिरा में देखते हैं , कुछ सुख को व्यभिचार में देखते हैं , कुछ त्याग में देखते हैं - पर सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है ; कोई भी व्यक्ति , संसार में अपनी इच्छानुसार वह काम न करेगा , जिसमें दुःख मिले - यही मनुष्य की मनः प्रवृत्ति है ।
संसार में इसीलिए पाप की परिभाषा नहीं हो सकी - और न हो सकती है । हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं , हम केवल वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है । "
- भगवती चरण वर्मा , " चित्रलेखा " से
bahut sunder.
ReplyDeletekhaskar ke- व्यक्तियों के सुख के केन्द्र भिन्न होते हैं ।